आत्मबल



आत्मशक्ति मुश्किल दिनों की सबसे विश्वसनीय साथी है। एक ऐसा साथी जो हमें न सिर्फ मुश्किलों से बाहर निकलने में मदद करता है, बल्कि सफलता की ओर अग्रसर भी करता है। जो भी व्यक्ति आत्मशक्ति को पहचान लेता है वह अपनी मंजिल प्राप्ति की राह में आने वाली बाधाओं को देखकर भी कमजोर नहीं पड़ता। ऐसे लोगों के अदम्य साहस और आत्मशक्ति को देखकर हर मुश्किल स्वत: ही दूर होती जाती है। इसलिए अपनी आत्मशक्ति पर सदैव भरोसा करें। अपने मन में तनिक भी संदेह न आने दें। संदेह की मामूली-सी परछाईं भी आपके चट्टान सरीखे साहस को बालू का ढेर बना सकती है। कभी भी और किसी भी परिस्थिति में स्वयं को अकेला महसूस न करें। ऐसा इसलिए, क्योंकि स्वयं को अकेला महसूस करने वाले लोग अपनी आत्मशक्ति खो देते हैं और आत्मविस्मरण के घटाटोप अंधकार में डूबने लगते हैं। ऐसे में जरूरत सिर्फ इस बात की है कि हम अपने भीतर परमात्मा के होने का अहसास करें और किसी भी परिस्थिति में अपने भीतर ओजस विचारों का प्रवाह बंद न होने दें। इस विषय में किए गए अनेक शोध और अध्ययन दर्शाते हैं कि बचपन से लेकर यौवन की वय:संधि तक जिन युवक-युवतियों को माता-पिता और परिवार का समुचित स्नेह और प्यार-दुलार नहीं मिलता वे आमतौर पर अकेलापन महसूस करते हैं। उनमें निर्णय लेने की क्षमता का अभाव देखा जाता है। यहां तक कि वे जरा-जरा सी बात पर घबरा जाते हैं। इस वजह से उनके द्वारा लिए गए फैसले भी गलत होने लगते हैं। सफलता उनसे दूर भागने लगती है। ऐसे में वे घोर निराशा में चले जाते हैं।
दूसरी ओर जिन युवक-युवतियों को माता-पिता और परिवार का समुचित प्यार-दुलार और स्नेह मिलता है वे अपनी आत्मशक्ति को इतना मजबूत और विकसित कर लेते हैं कि जीवन की कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी घबराते नहीं हैं। इसलिए मुश्किल से मुश्किल समय में भी मत घबराइए। विश्वास रखें, आप कुदरत की अनूठी कृति हैं। आपके अंदर अदम्य साहस है। गजब की क्षमता है। तेज व ओज है और बुद्धि व विवेक का एक स्त्रोत है। फिर कमजोरी कैसी, अकेलापन कैसा और लाचारी कैसी?

स्वामी विवेकानंद --.साध्य से महत्वपूर्ण साधन

स्वामी विवेकानंद का चिंतन..साध्य से महत्वपूर्ण साधन
हमारी नजर साध्य (लक्ष्य) पर रहती है, साधनों पर नहीं। यदि हमारे साधन बिल्कुल ठीक हैं, तो साध्य की प्राप्ति होगी ही।
अपने जीवन में मैंने जो एक श्रेष्ठतम पाठ सीखा, वह यह है कि किसी भी कार्य के साधनों के विषय में उतना ही सावधान रहना चाहिए, जितना कि उसके लक्ष्य के विषय में। जिनसे मैंने यह बात सीखी, वे एक बड़े महात्मा थे। यह महान तत्व स्वयं उनके जीवन में प्रत्यक्ष कार्यरूप में परिणत हुआ था। इस एक तत्व से मैं सर्वदा बड़े-बड़े पाठ सीखता आया हूं। मेरा यह मत है कि सब प्रकार की सफलताओं की कुंजी इसी तत्व में है - साधनों की ओर भी उतना ही ध्यान देना आवश्यक है, जितना कि साध्य की ओर।
हमारे जीवन में एक बड़ा दोष यह है कि हम साध्य (लक्ष्य) पर ही अधिक ध्यान दिया करते हैं। हमारे लिए लक्ष्य अधिक आकर्षक होता है। यह मोहक होता है। हमारे मन पर इतना प्रभाव डालता है कि उसकी प्राप्ति के साधनों की बारीकियां हमारी नजर से निकल जाती हैं।
लेकिन कभी विफलता मिलने पर हम यदि बारीकी से उसकी छानबीन करें, तो निन्यानबे प्रतिशत यही पाएंगे कि उसका कारण था हमारा साधनों की ओर ध्यान न देना। हमें आवश्यकता है अपने साधनों को मजबूत बनाने की। उन्हें पूर्ण रूप से कार्यक्षम करने के लिए उनकी ओर अधिक ध्यान देने की। यदि हमारे साधन बिल्कुल ठीक हैं, तो साध्य की प्राप्ति अवश्य होगी।
अक्सर हम यह भूल जाते हैं कि कारण ही कार्य का जन्मदाता है, कार्य कभी अपने आप पैदा नहीं हो सकता। जब तक कारण बिल्कुल ठीक, योग्य और सक्षम न हों, कार्य की उत्पत्ति नहीं होगी। एक बार हमने ध्येय निश्चित कर लिया और उसके साधन पक्के कर लिए, तब फिर हम ध्येय को लगभग छोड़ सकते हैं। कारण यह है कि ऐसी स्थिति में हमें यह अच्छी तरह मालूम होता है कि अगर साधन दोषहीन है, तो साध्य कहीं नहीं जाएगा। उसे आना ही है। जब कारण विद्यमान है, तो कार्य की उत्पत्ति होगी ही। उसके बारे में विशेष चिंता की कोई आवश्यकता नहीं।
यदि कारण के विषय में हम सावधान रहें, तो कार्य स्वयं आ ही जाएगा। कार्य है ध्येय की सिद्धि और कारण हैं साधन। इसलिए साधन की ओर ध्यान देते रहना जीवन का एक बड़ा रहस्य है। गीता में भी हमने यही पढ़ा और सीखा है कि हमें लगातार अपनी पूरी ताकत से काम करते ही जाना चाहिए। काम चाहे कोई भी हो, हमें अपना पूरा मन उस ओर लगा देना चाहिए। लेकिन साथ ही यह भी ध्यान रहे कि हम उस कार्य में आसक्त न हो जाएं। अर्थात अपने कर्म से किसी भी विषय द्वारा हमारा ध्यान न हटे, फिर भी हममे इतनी शक्ति हो कि हम इच्छानुसार उस कर्म को छोड़ भी सकें। यही अनासक्त कर्म है।

स्वामी विवेकानंद -.दुख सबसे बड़ा शिक्षक

स्वामी विवेकानंद का चिंतन..दुख सबसे बड़ा शिक्षक
चरित्र को एक विशिष्ट ढांचे में ढालने में अच्छाई और बुराई दोनों की ही समान भूमिका रहती है। दुख कभी-कभी तो सुख से भी बड़ा शिक्षक हो जाता है। स्वामी विवेकानंद का चिंतन..
कर्म शब्द 'कृ ' धातु से निकला है। कृ धातु का अर्थ है- करना। जो कुछ किया जाता है, वही कर्म है। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ कर्मफल भी होता है। दार्शनिक दृष्टि से यदि देखा जाए, तो इसका अर्थ कभी-कभी वे फल होते हैं, जिनका कारण हमारे पूर्व कर्म रहते हैं। परंतु कर्मयोग में कर्म शब्द से हमारा मतलब केवल कार्य ही हैं।
मानवजाति का चरम लक्ष्य ज्ञानलाभ है। प्राच्य दर्शनशास्त्र हमारे सम्मुख एकमात्र यही लक्ष्य रखता है। मनुष्य का अंतिम ध्येय सुख नहीं वरन ज्ञान है, क्योंकि सुख और आनंद का तो एक न एक दिन अंत हो ही जाता है। अत: यह मान लेना कि सुख ही चरम लक्ष्य है, मनुष्य की भारी भूल है। संसार में सब दुखों का मूल यही है कि मनुष्य अज्ञानतावश यह समझ बैठता है कि सुख ही उसका चरम लक्ष्य है। पर कुछ समय के बाद मनुष्य को यह बोध होता है कि जिसकी ओर वह जा रहा है, वह सुख नहीं वरन ज्ञान है तथा सुख और दुख दोनों ही महान शिक्षक हैं। जितनी शिक्षा उसे सुख से मिलती है, उतनी ही दुख से भी। सुख और दुख ज्यों-ज्यों आत्मा पर से होकर जाते रहते हैं, त्यों-त्यों वे उसके ऊपर अनेक प्रकार के चित्र अंकित करते जाते हैं। इन चित्रों अथवा संस्कारों की समष्टि के फल को ही हम मानव का चरित्र कहते हैं।
यदि किसी मनुष्य का चरित्र देखो, तो प्रतीत होगा कि वास्तव में वह उसकी मानसिक प्रवृत्तियों एवं मानसिक झुकाव की समष्टि ही है। तुम यह भी देखोगे कि उसके चरित्रगठन में सुख और दुख दोनों ही समान रूप से उपादानस्वरूप हैं।
चरित्र को एक विशिष्ट ढांचे में ढालने में अच्छाई और बुराई दोनों का समान अंश रहता है और कभी-कभी तो दुख, सुख से भी बड़ा शिक्षक हो जाता है। यदि हम संसार के महापुरुषों के
चरित्रों का अध्ययन करें, तो मैं कह सकता हूं कि अधिकांश दशाओं में हम यही देखेंगे कि सुख की अपेक्षा दुख ने तथा संपत्ति की अपेक्षा दारिद्रय ने ही उन्हें अधिक शिक्षा दी है एवं प्रशंसा की अपेक्षा निंदारूपी आघात ने ही उसकी अंतस्थ ज्ञानाग्नि को अधिक स्फुरित किया है।